मैं कम बोलता हूं, पर कुछ लोग कहते हैं कि जब मैं बोलता हूं तो बहुत बोलता हूं.
मुझे लगता है कि मैं ज्यादा सोचता हूं मगर उनसे पूछ कर देखिये जिन्हे मैंने बिन सोचे समझे जाने क्या क्या कहा है!
मैं जैसा खुद को देखता हूं, शायद मैं वैसा नहीं हूं.......
कभी कभी थोड़ा सा चालाक और कभी बहुत भोला भी...
कभी थोड़ा क्रूर और कभी थोड़ा भावुक भी....
मैं एक बहुत आम इन्सान हूं जिसके कुछ सपने हैं...कुछ टूटे हैं और बहुत से पूरे भी हुए हैं...पर मैं भी एक आम आदमी की तरह् अपनी ज़िन्दगी से सन्तुष्ट नही हूं...
मुझे लगता है कि मैं नास्तिक भी हूं थोड़ा सा...थोड़ा सा विद्रोही...परम्परायें तोड़ना चाहता हूं ...और कभी कभी थोड़ा डरता भी हूं...
मुझे खुद से बातें करना पसंद है और दीवारों से भी...
बहुत से और लोगों की तरह मुझे भी लगता है कि मैं बहुत अकेला हूं...
मैं बहुत मजबूत हूं और बहुत कमजोर भी...
लोग कहते हैं लड़कों को नहीं रोना चाहिये...पर मैं रोता भी हूं...और मुझे इस पर गर्व है क्योंकि मैं कुछ ज्यादा महसूस करता हूं...

Sunday, 22 September 2013

दिल का रास्ता पेट से होकर गुजरता है


दिल का रास्ता पेट से होकर गुजरता है..... कभी कभी गलत ट्रेन भी सही जगह पहुंचा देती है.. और केन आई कम विद यू इऩ भूटान ...। ये तीन डायलॉग हिन्दी फिल्म लंच बॉक्स की आत्मा है। मतलब यह कि फिल्म देखने के बाद इन डायलॉग की गहराई मालूम होती है। जब सिनेमा देखने वालों की भीड़ ग्रांड मस्ती जैसी व्दीअर्थी फिल्म को देखने के लिए उमड़ रही हो, इस बीच लंच बॉक्स देखने के लिए उतावलापन भी दर्शकों मे दिखा, जो जायज भी लगा। कहानी एक एसे बीमा कंपनी के कर्मचारी की है, जो अपनी पत्नी की मौत के बाद अकेला है। वही इला नाम की महिला अपने पति व बेटी के साथ 1 बीएचके के छोटे से फ्लैट में रहते हुए भी अकेली है। उसका पति काफी व्यस्त है, अपनी नौकरी के साथ  और एक बाहरी के महिला के साथ भी। इस बीच दो अकेले लोगो के बीच कभी ना गलती करने वाले डब्बा वालों की गलती से प्यार पनपता है, फेसबुक और वॉट्स अप के दौर में दोनो के बीच महिनों हाथ से लिखी चिट्ठीयों का दौर चलता है। भावनाओं को बड़ी बारीकी से चुनचुन कर डायरेक्टर रीतेश बत्रा ने सीन में पिरोया है। ज्यादा लिखूंगा तो फिल्म का मजा किरकिरा हो जाएगा। हां, फिल्म मे देशपांडे आंटी जो कभी दिखी नही, और नवजुद्दीन सिद्दीकी का शेख का रोल काफी प्रभावशाली है। ये मेरे उन दोस्तो के लिए है, जो मेरी तरह कुछ अलग हटकर देखना पसंद करते है। थोड़ा लिखा है ज्यादा समझना....। आपका -अर्पण

Wednesday, 3 July 2013

घुटनामाल ग्वालियर पुलिस

ग्वालियर। बचपन में एक डाकू की कहानी सुनी थी। उसका नाम था, अंगुलीमाल । वह राहगीरों की जंगल से गुजरते वक्त अंगुली काट लेता था। इन उंगलियों की माला बनाकर वह गले में पहनता था। पुलिस भी इस डाकू से सबक लेकर बदमाशों से निपटने में लगी है। शहर और देहात में सिर उठाने वाले बदमाशों के ऐन घुटने पर गोली लग रही है। इस माह आंकड़ा सोमवार की रात पांच तक पहुंच गया। रात को मुरार थाने की पुलिस ने गणेश और बंटी नाम के दो अपराधियों के घुटने गोली मारकर सुराख कर दिए। मतलब, जिंदगी भर के लिए अब ये बदमाश पुलिस से भाग नही सकेंगे। अब इस पूरे एपिसोड में पुलिस की मुस्तैद कार्रवाई काबिल ए तारिफ है। हां, ये बात खल रही है कि पहले पुलिस सुस्त थी, या फिर अब पुलिस का निशाना दुरुस्त हो गया है। कुल मिलाकर नए पुलिस कप्तान की पुरानी टीम के घुटनामाल तेवर देख, बदमाश पुलिस से अपने घुटने छुपाए फिर रहे है। बदमाशों के सपने में आकर पुलिस शोले के गब्बर के अंदाज में घुटना मांगती दिखाई दे रही होगी। जैसा कि गब्बर ने फिल्म में ठाकुर को बांधकर उससे उसके हाथ मांगे थे। ये हाथ हमको दे ठाकुर......... ।

Wednesday, 26 June 2013

थोड़ा लिखा है ज्यादा समझना

उत्तराखंड में कोहराम होने के बाद सोचता हूं कि देश में सरकारें भले ही ना हो, पर सेना का होना बहुत जरुरी है। नेता काम करने के बजाएं सिर्फ एक-दूसरे को नीचा दिखाने में जुटे है। जबकि सेना के जवान व अफसर चुपचाप अपना काम करने में जुटे है। जय जवान-जय किसान ....।

Tuesday, 18 June 2013

बच्चन तो साला कोई और है....


हम सोचे संजीव कुमार के घर हम बच्चन पैदा हुए है, पर हम तो शशि कपूर निकले। बच्चन तो साला कोई और है। गैंग आफ वासैपुर-2 के यह कड़क डायलाग आज भी फिल्म देखने वालों के जेहन में है। इस ग्रे शेड फिल्म में अपने अभिनय का लोहा मनवाने वाले फैजल खान ( असल जिंदगी में नवाजुद्दीन सिद्दीकी) संजीव कुमार के फैन है। नवाज भाई का यूं तो मैं खुद भी बड़ा फैन हूं। ग्वालियर में इंडिया टुडे के उभरता चंबल कान्क्लेव में उनसे छोटी सी मुलाकात में उन्होने बताया कि ना तो शक्ल थी और ना ही किसी फिल्मी फैमिली का बैकग्राउंड था। एनएसडी (नेशनल स्कूल आफ ड्रामा) से पास होने के बाद बालिवुड में कोई पांच साल तक काम नही मिला। हालत यह हो गई बंबई में भूखा मरने की नौबत आ गई। खुद को अनलकि मानने लगे। जबकि आत्मविश्वास यह भी था कि बस, एक बार काम मिल जाएं तो उनको कोई रोक नही पाएगा। काम भी मिले तो कुछ सेकंड के रोल। इसके बाद नवाजु्द्दीन से फैजल भाई बनने में 12 साल लग गए। मैने उनसे पूछा कि जिया खान की शुरुआत सुपरस्टार के साथ होती है, इसके बाद वह अवसाद की शिकार होकर मौत को गले लगा लेती है। वही दूसरी ओर नवाजुद्दीन 12 साल संघर्ष करते है, और फिर सुपरस्टार बनते है। इन दोनो बालिवुड हस्तियों मे क्या अंतर था। नवाज कहते है कि आजकल काम के लिए यंगस्टर्स कनेक्शन बनाने में ज्यादा मेहनत करते है। जबकि असल मेहनत अपने काम को पालिश करने में करना चाहिए। कनेक्शन से काम मिल सकता है, जबकि मेहनत से नाम जरुर मिलेगा।

Monday, 17 June 2013

रोजगार जहां जीरो, वहां झूठे विकास का दावा कर बन रहे हीरो


ग्वालियर। मेरी ये टिप्पणी ना तो भाजपा नेताओं पर है, और ना ही कांग्रेस नेताओं पर । सीधा आरोप है, मतादाताओं पर, वो भी मेरे अपने ग्वालियर चंबल के। साफ पहले इसलिए कर दिया कि मेरे इस पोस्ट को राजनीति के आरोप व प्रतयारोप का ठिकाना ना बना दें।
दरअसल कल ही देश के प्रतिष्ठित इंडिया टुडे समूह ने ग्वालियर में उभरता चंबल कॅान्क्लेव का आयोजन किया था। यहां चर्चा करने के लिए भारत सरकार के रुरल डवलपमेंट मिनिस्टर प्रदीप जैन आदित्य व प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान भी उपिस्थत थे। मैने कॅान्क्लेव में इनसे सवाल किया कि जिस अंचल के युवा पैदा होकर पढ़ने तक यही होते है। बाद में रोजगार की तलाश के लिए दिल्ली, नोएडा व पूना जैसे बड़े शहरों की ओर पलायन कर जाते है। एसे हालातों मे उभरते चंबल का दावा करना ठीक होगा। जहां युवा नही, रोजगार वहां विकास की बात करना बेइमानी है। इस पर भारत सरकार के मंत्री प्रदीप जी का कहना था कि विकास हो रहा है। केन्द्र सरकार पर राज्य सरकार कोई प्रस्ताव लाएगी, तब इस पर काम किया जाएगा। वही अगले सत्र में शिवराज सिंह कहते है कि उन्होने साढ़ें सात सालों मे कानून व्यवस्था ठीक की। अब रोजगार के अवसर बढ़ाने पर ध्यान दे रही है। जबकि केन्द्र सरकार कई मामलों मे उन्हे ग्रीन सिग्नल नही दे रही है। कुल मिलाकर जहां दोनो ही पार्टीयं युवा नेतृत्व की वकालत कर रही है, एसे में युवाओं के लिए दोनो ही पार्टीयों की अनदेखी आमजन व खासतौर पर युवा वर्ग से धोखेबाजी है।
क्या आपने कभी सोचा है कि शहर में तकरीबन 5 हजार से ज्यादा एसे घर है, जिनमें बूढ़े मां-बाप अकेले रह रहे है। एसा नही है कि उनके बेटे या बेटिया उन्हे छोड़ कर चले गए। दरअसल रोजगार की तलाश में उन्हे अपना शहर और घर दोनो ही छोड़ना पड़ा। अंचल में बामौर व मालनपुर जैसे औद्योगिक क्षेत्र खस्ताहाल में है। कोई भी बड़े औद्योगिक घराने यहां आने को तैयार नही है। अब एसे हालातों में आप क्षेत्र के हित में किस पार्टी को चुनेंगे।

Thursday, 13 June 2013

Sharab Chahiye, mahapaur niwas aaiye


gwalior mayor ke sarkari bungalow se awaidh sharabh bikri ka bhandhafod....... janne ke liye padhe naidunia me arpan ki khas report...... 

chakravyuh

chakravyuh = is desh ki total 25% capital, kewal 100 pariwaro ke pass hai. Jabki aadhi aabadi kewal 20 rupay roz ke liye kamar tod mehnat kar rahi hai. Salwa judum ki hakikat aur system par jordar chot hai. Taklif hai ki itna zabardast subject, bus ek 3 hrs. Ki movie bankar kahatam ho gaya. Ye krantikari movie hai, jo log subject wali movie pasand karte ho, meri ray hai, ise jarur dekhe..... lal salam